डरता हुँ, डगमगा ना जाऊ कहीं,
इस बेरंग सी दुनिया मे मैं हुँ यही कहीं,
लोग कहते है , दुनिया कितनी हसीन,
मैं कहता ,मेरे लिए क्या आसमा और क्या ज़मीन,
सूरज की गर्मी ,जाड़े की ठंड,
ना जाने क्या होता इनका रंग,
अब तो एहसास ही है मेरे संग,
क्यों की मुझसे रूठे है ये रंग।
जिधर देखता हुँ,गुज़ता एक ही नारा,
अब तो है मुझे मेरी लाठी का ही सहारा,
नहीं दिखता कोई रंग ना कोई नज़ारा।
मुझे नहीं है किसी का डर,
क्यों की ये अंधेरा है अमर,
इस अंधेरे ने मुझे है रोका,
क्या करू मेरे नयनों ने ही किया है धोखा,
डरता हुँ ,डगमगा ना जाऊ कहीं,
इस बेरंग सी दुनिया में मै हुँ यही कहीं।
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